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रावणा राजपुत का इतिहास

Ravna Rajput【रावणा राजपुत】
इतिहास :-
प्राचीनतम आर्य संस्कृति के क्षत्रिय वर्ण का मुख्य दायित्व सुरक्षा एवं शासन करना था। सुरक्षा की दृष्टि से शत्रुओं से युद्ध करके राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना और प्रजा की रक्षा करना  तथा शासन की दृष्टि से प्रजा की सेवा करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य था।  ये ही क्षत्रिय वर्ण के लोग अनगिनत जातियों में विभक्त हो गए। राजपूत जाति उनमें से एक है। आर्य संस्कृति के चारों वर्ण जब भिन्न भिन्न जातियों में विभाजित होने लगे, तब हिन्दू संस्कृति का  प्रादुर्भाव हुआ।  आज जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म के प्रमुख लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है। जिसमे ऊँच-नीच छूत अछूत जैसी बुराईयाँ व्याप्त है।  कालांतर में राजपूत जाती में भी अनेक जातियां  निकली। उस व्यवस्था में रावणा राजपूत नाम की जाति राजपूत जाति में से निकलने वाली अंतिम जाती है, जिसकी पहचान के पूर्वनाम दरोगा, हजुरी वज़ीर     आदि पदसूचक नाम है। राजपूत जाति से अलग पहचाने जाने वाली इस जाति प्रारंभिक काल मुग़ल शासन है।  भारत में अंग्रेजी शासन के उस काल में जबकि अनेक समाज सुधार आंदोलन चल रहे थे और देश में स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस का आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा था, तब बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में आर्य समाज की विचारधारा और कार्यकलापों से ओतप्रोत इस जाति के बुद्धिजीवी वर्ग में अरबी और फ़ारसी भाषा के शब्दों से निज जाति की पहचान कराने वाले उपरोक्त जातिसूचक नामों को नकार दिया था और विशुद्ध हिंदी भाषा रावणा राजपूत नाम से इस जाति पहचान कराने का अभियान शुरू कर दिया था।  रावणा शब्द का अर्थ राव+वर्ण से है अर्थात योद्धा जाति यानी की राजाओं व सामंतों के शासन की सुरक्षा करने वाली एकमात्र जाति जिसे रावणा राजपूत नाम से जाना जाए। इस नाम की शुरुआत तत्कालीन मारवाड़ की रियासत के रीजेंट सर प्रताप सिंह राय बहादुर के संरक्षण में जोधपुर नगर के पुरबियों के बॉस में सन १९१२ में हुई है।  जिस समय इस जाति के अनेकानेक लोग मारवाड़ रियासत के रीजेंट के शासन और प्रशासन में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रहे थे।
स्मरण रहे की सर प्रताप सिंह राय बहादुर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत प्रभावित थे और आर्य समाज जोधपुर के प्रथम संस्थापक प्रधान थे।  आज यह नवसृजित नाम मारवाड़ की सीमाओं को लांग कर राजस्थान के अनेक ज़िलों में प्रचलित है जिसकी व्यापकता की दृष्टि से काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने भी पुष्टि की है। और केंद्र तथा राज्य सरकार ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचि में सम्मिलित किया है।  इस नाम से इस जाति की नयी पुरानी पहचान छुपी हुई है।  सच माने में यह जाति शैक्षणिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, आर्थिक और राजनितिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी हुई जाति है।
विशेष टिप्पणी : रावणा राजपूत कहे जाने वाली इस जाती व अन्य पिछड़ी jaatiyon को दास प्रथा से मुक्त कराने में मारवाड़ के महाराजाधिराज श्री सर जसवंत सिंह जी साहब ने विक्रम संवत १९४० (सन १८८७ ई.) के क़रीब मारवाड़ का क़ानून बनवाकर 'वशी प्रथा' व 'दास प्रथा' दोनों का अंत किया जिसके बाद सामंतवादी क्षत्रियों ने वापस समय पाकर इन प्रथाओं को दुसरे रूप में सन १९१६ ई. में हरा-भरा करने का प्रयास किया।  जिसे वापस हमारे श्री सर उम्मैद सिंह जी साहब बहादुर ने सन १९२१ ई. में नोटिफिकेशन नं. ११९३९ तारीख २१--४-१९२६ के द्धारा समूल रद्द कर अपनी दीं प्रजा को सामंतवादी जमीदारों से मुक्त किया।
वि. स. १९४३ ई. और सन. १८८७ ई. पूर्व फौज में पुरबिये, सिख, जाट और देसी मुसलमान आदि ही भर्ती किये जाते थे।  राजपूतों की भर्ती किंचित मात्र ही थी।  लेकिन सं. १८८९ में मारवाड़ नरेश ने राजपूतों की माली हालत को समझते हुए एक फरमान निकला की आइंदा सरकारी फौज में देसी राजपूत ही भर्ती किये जाएँ।  सं. १८१८ ई. से इस हुक्म की तामिल शुरू हुई। सरदार रिसाला और इंफेक्ट्री की नवीन भर्ती शुरू हुई जिसमे राजपूत व भूमिहीन राजपूत ( पिछड़े ) दोनों को योग्यतानुसार सामान पदों पर भर्ती किया गया।

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